- Fundamental analysis kya hota hai?
- FAQ –
- Ques – Balance Sheet Equation kya hota hai?
- Ques – Gross Profit vs Net Profit kya hota hai?
- Ques – Operating Profit vs Non – Operating Profit kya hota hai?
- Ques – Share Holder’s Equity kya hota hai?
- Ques – ROE vs ROCE vs ROIC kya hota hai?
- Ques – Undervalued vs Overvalued Share kya hota hai?
- Ques – Market Value vs Face Value vs Book Value kya hota hai?
- Ques – Inventory Turnover Days kya hota hai?
- Ques – Diluted EPS kya hota hai?
- Ques – EBIT vs EBITDA kya hota hai?
- Ques – TTM kya hota hai?
- Ques – Firm vs Industry kya hota hai?
Fundamental analysis kya hota hai?
Fundamental analysis से हम यह जान सकते हैं, कि किस कंपनी में हमें इन्वेस्ट करना चाहिए | जो कि qualitative और quantitative दोनों फैक्टर्स में बहुत अच्छी हो | ताकि हमें लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टमेंट पर ज्यादा प्रॉफिट हो सके |
Fundamental analysis ke type?
Fundamental analysis के दो प्रकार होते है –
Qualitative Analysis | Quantitative Analysis |
Qualitative analysis – में हम उन बातों को एनालाइज करते हैं, जिन्हें हम नंबर्स में नहीं जान सकते | दूसरी भाषा में कहें तो क्वालिटेटिव एनालिसिस में हम नंबर के अलावा कंपनी के कोर बिजनेस को एनालाइज करते हैं | जैसे – कंपनी का बिजनेस मॉडल कैसा है, कंपनी के प्रोडक्ट ओर सर्विस कैसी है, कंपनी अपने कंपीटीटर्स से कितनी अच्छी और आगे हैं, कंपनी की मैनेजमेंट कितनी इमानदार है, कंपनी ने अपने ग्रोथ के लिए क्या-क्या प्लैन किए हैं, कंपनी की ब्रांड इमेज कितनी अच्छी है आदि | | Quantitative analysis – में हम उन बातों को एनालाइज करते हैं, जिन्हें हम नंबर्स में जान सकते हैं | जैसे – फाइनेंसियल स्टेटमेंट, बैलेंस शीट, इनकम स्टेटमेंट, कैश-फ्लो स्टेटमेंट, रेश्यो आदि | |
Fundamental analysis ki jarurat q hoti hai?
जब हमें शेयर का Intrinsic value (real value) या उचित दाम पता करने और भविष्य में वह शेयर कितना ज्यादा मुनाफा देगा | यह सब जानने के लिए हमें फंडामेंटल एनालिसिस की जरूरत होती है |
उदाहरण के लिए – मान लीजिए आप दुकान में पेन लेने गए | जहां आपको पेन ₹10 का मिल रहा है, वही पेन दूसरी दुकान में ₹5 में मिल रहा है | अब आप कौन सा पेन लेना चाहेंगे ? आप कहेंगे ₹5 वाला | ऐसे ही शेयर मार्केट में, शेयर की डिमांड ज्यादा होने से उसका भाव बढ़ जाता है, और डिमांड कम होने से उसका भाव कम हो जाता है | अब ऐसे में अगर आपको उस कंपनी के शेयर खरीदने हैं | तो आप कैसे पता करेंगे कि कौन सा समय आपके लिए सही है | जिससे आप उस कंपनी के शेयर उचित दाम में ले सके |
Fundamental analysis kaise karte hai?
Fundamental analysis 3 स्टेप्स में किया जाता है –
1) Financial Statement Analysis.
2) Annual Report Analysis.
3) Financial Ratios.
आइये अब एक – एक करके तीनो स्टेप्स को डिटेल में जानते है |
1) Financial Statement Analysis.
ऐसी स्टेटमेंट जो कंपनी के फाइनेंशियल रिपोर्ट के बारे में बताती हो उसे फाइनेंसियल स्टेटमेंट कहते हैं | फाइनेंशियल स्टेटमेंट में हम कंपनी के बैलेंस शीट, इनकम एंड एक्सपेंस स्टेटमेंट और कैश-फ्लो स्टेटमेंट के बारे में जानते हैं |
i) Balance Sheet
Balance Sheet एक फाइनेंशियल स्टेटमेंट होता है | जिसे कंपनी मेनली अपने एनुअल रिपोर्ट में दिखाती है | बैलेंस शीट किसी भी कंपनी की फाइनेंशियल स्टेटस को बताता है | जैसे – किस कंपनी ने कितना पैसा कमाया है, कितना पैसा खर्च किया है और कितना पैसा बचाया है | बैलेंस शीट हमें किसी भी कंपनी की तीन चीजों के बारे में बताती है – एसेट, लायबिलिटी और शेयर होल्डर इक्विटी |
a) Asset
जिस चीज से आपकी जेब में पैसे आते हैं | मतलब कंपनी के पास इकनोमिक वैल्यू वाली कौन-कौन सी चीज है, जिसे कंपनी आसानी से पैसों में कन्वर्ट कर सकती हैं |
ऐसेट को तीन कैटेगरी के बेसिस पर क्लासिफाइड किया जाता है –
1) Convertibility के बेसिस पर जिसमें current assets & non-current assets आते है |
Current Asset (Short-term Asset, Liquid Asset) | Non – Current Asset (Long-term Asset, Fixed Asset) |
करंट ऐसेट ऐसे एसेट होते हैं, जिन्हें कंपनी 1 साल के अंदर यूज कर लेगी या एक साल में ही पैसों में कन्वर्ट कर लेगी | | नॉन-करंट ऐसेट ऐसे एसेट होते हैं, जिन्हें कंपनी 1 साल के बाद भी यूज करती रहेगी | या एक साल बाद जब भी उसे पैसों की जरूरत होगी तो वह नॉन-करंट एसेट को आसानी से पैसों में कन्वर्ट कर लेगी | |
जैसे – कैश एंड कैश इक्विवेलेंट्स, इन्वेंटरी, शॉर्ट टर्म इन्वेस्टमेंट, अकाउंट्स रिसिवेबल आदि | | जैसे – लैंड, बिल्डिंग, फैक्ट्री, मशीनरी, लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टमेंट आदि | |
2) Physical Existence के बेसिस पर जिसमें tangible assets & intangible assets आते है |
Tangible Asset | Intangible Asset |
Tangible Asset ऐसे एसेट होते हैं, जिन्हें हम देख और टच कर सकते हैं | | Intangible Asset ऐसे एसेट होते हैं, जिन्हें हम देख और टच नहीं कर सकते लेकिन अपने आस – पास फील कर सकते हैं | |
जैसे – लैंड, बिल्डिंग, इक्विपमेंट, इन्वेंटरीज, मशीन आदि | | जैसे – गुडविल, पेटेंट, कॉपीराइट, परमिट आदि | |
3) Purpose के बेसिस पर जिसमें operating assets & non-operating assets आते है |
Operating Asset | Non-Operating Asset |
Operating Asset ऐसे ऐसेट होते हैं, जिससे कंपनी का daily revenu generate होता हो, या जिससे कंपनी का daily operation चलता हो | | Non-operating Asset ऐसे ऐसेट होते हैं, जिससे कंपनी का daily revenu या daily operation तो नहीं जनरेट होता | पर उसपर मिलने वाला इंटरेस्ट या रेंट उस कंपनी का non-operating assets होता है | |
जैसे – मशीनरी आदि | | जैसे – FD आदि | |
b) Liability
जिस चीज से आपकी जेब से पैसे जाते है | मतलब कंपनी ने कितना लोन लिया है, या उसे कितना लोन चुकाना है | लायबिलिटी तीन तरह की होती है –
Current Liability (Short-term Liability) | Non – Current Liability (Long-term Liability) | Contingent Liability |
ऐसी लायबिलिटी जिसे कंपनी को 1 साल के अंदर चुकाना होता है | | ऐसी लायबिलिटी जिसे कंपनी को 1 साल के बाद चुकाना होता है | | ऐसी लायबिलिटी जो फ्यूचर इवेंट पर डिपेंड होती है | मतलब यह हो भी सकती है, और नहीं भी हो सकती है | |
जैसे – शॉर्ट टर्म लोन, अकाउंट पेबल आदि | | जैसे – लॉन्ग टर्म लोन आदि | | जैसे – गारण्टीस गिवेन बाय कम्पनी, प्रोपोसड डिविडेंड फॉर करंट ईयर आदि | |
c) Shareholders Equity
मतलब कंपनी के शेयर होल्डर्स का कितना पैसा अभी तक कंपनी में इन्वेस्ट है | शेयर होल्डर्स को हम अन्य नामों से भी जानते हैं | जैसे – ओनर इक्विटी, कंपनी का नेटवर्थ, इक्विटी या बुक वैल्यू |
ii) Income & Expense Statement (P&L)
इनकम एंड एक्सपेंसेस स्टेटमेंट जो कि एक फाइनेंसियल स्टेटमेंट होता है | जिससे हमें किसी कंपनी का रेवेन्यु या सेल्स, एक्सपेंसेस और उससे हुए प्रॉफिट या लॉस के बारे में पता चलता है | इनकम एंड एक्सपेंसेस स्टेटमेंट को अन्य नामों से भी जानते हैं | जैसे – Statement of Profit and Loss, Statement of Operations, Statement of Revenus and Expenses, Statement of Earnings.
इनकम एंड एक्सपेंसेस स्टेटमेंट से हमें मुख्यता उस कंपनी की दो बातों का पता चलता है, कि उस कंपनी ने कितना रेवेन्यु या सेल्स जनरेट किया और उस कंपनी ने कितना पैसा खर्च किया | वही अगर हम टोटल रेवेन्यु या सेल में से टोटल एक्सपेंस को घटा देंगे तो हमें पता चल जाएगा, कि उस कंपनी को प्रॉफिट हुआ या लॉस |
Total Revenu – Total Expenses = Net Profit / Loss
iii) Cashflow Statement
कैश फ्लो स्टेटमेंट एक फाइनेंशियल स्टेटमेंट है | जो हमें कैश का इनफ्लो और आउटफ्लो (मतलब कंपनी में कितना पैसा आया और कितना पैसा कंपनी से बाहर गया) बताता है | मेनली कैश फ्लो का एनालाइज एनुअल रिपोर्ट में करते हैं, जहां पर टाइम पीरियड 1 साल का होता है | अब यहां पर सवाल आता है, कि जब कंपनी P&L स्टेटमेंट से नेट प्रॉफिट बता रही है, तो फिर अलग से कैश फ्लो स्टेटमेंट की क्या जरूरत है? तो इसका जवाब यह है, कि P&L स्टेटमेंट Accural अकाउंटिंग के बेस पर होता है |
Accural अकाउंटिंग में कंपनी अपने रेवेन्यू और एक्सपेंस को तभी काउंट कर लेती है, जब कंपनी कोई ट्रांजैक्शन करती है | चाहे उस ट्रांजैक्शन में असल में पैसों का लेनदेन हुआ हो या ना हुआ हो |
मतलब जब कंपनी क्रेडिट (उधार) पर सेल्स करती है | तो कंपनी उसी वक्त सेल्स को काउंट कर लेती है | चाहे उसे भविष्य में पैसे वापस ना ही मिले | इसी कारण से कंपनी के नेट प्रॉफिट और रियल कैश में फर्क होता है |
आइए इसे उदाहरण से समझते हैं | मान लीजिए – xyz नाम की कंपनी ने साल भर में 100 TV बेचे | जिसमें एक TV की कीमत ₹10,000 हैं | इस तरह xyz कंपनी ने साल भर में 100*10,000 = 10 lakh रुपए कमाए | लेकिन इस कंपनी ने 100 में से 50 TV उधार पर बेचे हैं | जिसका पैसा कंपनी को अभी नहीं मिला है | इस तरह आपको कंपनी के P&L स्टेटमेंट में 10,00,000 lakh रुपए दिखेंगे | जो देखने में बहुत अच्छा है, पर रियल में तो कंपनी को 50*10,000 = 5,00,000 lakh रुपए ही कैश के रूप में मिले हैं, और क्या पता भविष्य में बचे हुए ₹5,00,000 कंपनी वापस ले ही ना पाए | क्योंकि हो सकता है, कंपनी ने कुछ सेल्स फर्जी ही की हो |
तो इस तरह कैश फ्लो स्टेटमेंट से हमें दो बातों का पता चलता है –
कंपनी की फर्जी सेल्स के बारे में और वर्तमान में कंपनी के पास रियल कैश कितना है |
Cash Flow Statement kaise read kare?
कैश फ्लो स्टेटमेंट को पढ़ने के लिए हमें तीन एक्टिविटीज को अलग-अलग समझना होता है –
a) Cash Flow from Operating Activities
ऑपरेटिंग एक्टिविटीज़ वह एक्टिविटीज़ होती है, जो कंपनी के मेन बिजनेस से जुड़ी होती है | इसमें कंपनी के सेल्स, परचेज और जनरल एक्सपेंसेस होते हैं |
Formula – Net Cashflow from Operating Activities = Total Cash Inflow – Total Cash Outflow
आइये इसे उदाहरण से समझते हैं | मान लीजिए – xyz लिमिटेड ने साल भर में ₹1,000 करोड़ का माल खरीदा हैं। इस दौरान कंपनी की कुल सेल्स ₹2,000 करोड की रही। जबकि कंपनी के जनरल एक्सपेंडिचर ₹300 करोड़ के रहे। यदि कंपनी ने अपने प्रॉफिट पर ₹60 करोड़ का टैक्स चुकाया है, तो कंपनी का Cash Flow from Operating Activities इस प्रकार होगा –
Cash Flow from Operating Activities | Amt. in Crores |
Cash Received from customers | ₹2000 |
Cash paid to suppliers | (₹1000) |
General Expenditure | (₹300) |
Tax Paid | (₹60) |
Net Cash Flow from Operating Activities | ₹640 |
तो इस तरह xyz कंपनी का Cash Flow from Operating Activities ₹640 करोड़ होगा।
ध्यान दें – Net Cash Flow from Operating Activities पॉजिटिव में होना चाहिए |
ध्यान दें – Cash Flow में operating activity सबसे महत्वपूर्ण activities होती है | जिससे हमें उस कंपनी के बारे में बहुत कुछ पता चलता है |
जैसे –
* Net Cash Flow from Operating Activities नेगेटिव है, तो इसका मतलब कंपनी अपनी सेल्स से अपने एक्सपेंडिचर भी कवर नहीं कर पा रही है |
* Net Cash Flow from Operating Activities पॉजिटिव है, और लगातार बढ़ रही है | तो वह कंपनी फाइनेंशली स्ट्रांग मानी जाती है |
* Net Cash Flow from Operating Activities अगर कंपनी की नेट इनकम से ज्यादा है, तो ऐसे में भी कंपनी की earnings को अच्छा माना जाता है |
b) Cash Flow from Investing Activities
इन्वेस्टिंग एक्टिविटीज़ इसमें long-term asset जैसे – Property, Plant और Equipment की buying & selling होती है, और कई तरह की इन्वेस्टमेंट जैसे – share, Mutual Fund आदि की भी buying & selling होती है |
Formula – Net Cashflow from Investing Activities = Total Cash Inflow – Total Cash Outflow
इन्वेस्टिंग एक्टिविटीज़ से हमें दो बातों का पता चलता है –
अगर किसी कंपनी का Net Cash Flow from Investing Activities नेगेटिव है, तो ऐसा मान लिया जाता है, कि कंपनी ने कहीं इन्वेस्ट किया होगा |
और अगर किसी कंपनी का Net Cash Flow Investing Activities पॉजिटिव है | तो हो सकता है, कंपनी को कहीं से रेंट या ब्याज मिला हो, या फिर कंपनी ने कोई प्रॉपर्टी बेची हो आदि |
आइये इसे table से समझते है –
Cash Flow from Investing Activities | Amt. in Crores |
Sale of Land | ₹400 |
Purchase of Equipment | (₹600) |
Mutual Fund Buying | (₹60) |
Interest Received | ₹10 |
Net Cash Flow from Investing Activities | (₹250) |
तो इस तरह xyz कंपनी का Cash Flow from Investing Activities -₹250 करोड़ होगा।
c) Cash Flow from Financing Activities
इस तरह के एक्टिविटीज़ में वह कैश फ्लो आते हैं | जो कंपनी के डेट और इक्विटी कैपिटल पर प्रभाव डालते हैं | जैसे कि – नया डेट लेना या उसका रीपेमेंट करना, डिविडेंड देना, नए शेयर इश्यू करना आदि |
Formula – Net Cashflow from Financing Activities = Total Cash Inflow – Total Cash Outflow
आइये इसे table से समझते है –
Cash Flow from Financing Activities | Amt. in Crores |
Share Dividend Payment | (₹200) |
New Debt taken | ₹600 |
Net Cash Flow from Financing Activities | ₹400 |
तो इस तरह xyz कंपनी का Cash Flow from Financing Activities ₹400 करोड़ होगा।
ध्यान दें – अगर हम तीनो एक्टिविटीज का net cash flow जोड़ते हैं, तो हमें Net Increase या Net Decrease प्राप्त होता है | जिसे हम cash के opening बैलेंस में जोड़कर साल के अंत के लिए कैश का क्लोजिंग बैलेंस निकालते हैं।
Net Increase / Net Decrease | Amt. in Crores |
Net Cash Flow from Operating Activities | ₹640 |
Net Cash Flow from Investing Activities | (₹250) |
Net Cash Flow from Financing Activities | ₹400 |
Net Increase | ₹790 |
तो इस तरह xyz कंपनी का Net Increase ₹790 करोड़ होगा। और अगर हम net increase में कंपनी का ओपनिंग बैलेंस जोड़ दे तो हमें कंपनी का क्लोजिंग बैलेंस मिल जायेगा |
उदाहरण के लिए – मान लीजिए xyz कंपनी का ओपनिंग बैलेंस 1000 रुपए करोड़ है | जिसमें net increase को जोड़ दिया जाए तो xyz कंपनी का क्लोजिंग बैलेंस 1790 करोड़ रुपए होगा |
Cash Flow Statement ke type?
Cash Flow Statement के तीन प्रकार होते है –
Positive Cash Flow | Negative Cash Flow | Break Even Cash Flow |
जब कंपनी का inflow cash कंपनी के outflow cash से ज्यादा होता है, तो वह पॉजिटिव कैश फ्लो होता है | | जब कंपनी का inflow cash कंपनी के outflow cash कम होता है, तो वह नेगेटिव कैश फ्लो होता है | | जब कंपनी का inflow cash और कंपनी का outflow cash दोनों बराबर हो, तो वह ब्रेक इवन कैश फ्लो होता है | |
2) Annual Report Analysis.
Annual Report एक ऐसा डॉक्यूमेंट है, जिससे हम साल दर साल कंपनी में हुए चेंज को देख और समझ सकते हैं | किसी भी एनुअल रिपोर्ट में एक फाइनेंशियल ईयर की डिटेल इंफॉर्मेशन होती है |
एक एनुअल रिपोर्ट में मेनली यह सारी इनफार्मेशन होती है –
General Corporate Information.
Operating and Finance Review.
Director’s Report.
Corporate Governance Information.
Chairman Statements.
Auditor’s Report.
Financial Statements(Balance Sheet, Income Statement, Cash Flow Statement).
Notes to the Financial Statements.
Accounting Policies.
ध्यान दें – एक सक्सेसफुल इन्वेस्टर के लिए एनुअल रिपोर्ट बहुत ही इंपॉर्टेंट डॉक्यूमेंट होता है | इसलिए हमें एनुअल रिपोर्ट को अच्छे से पढ़ना आना चाहिए |
ध्यान दें – एनुअल रिपोर्ट को हम NSE और BSE की वेबसाइट से या फिर डायरेक्ट कंपनी की वेबसाइट से भी डाउनलोड कर देख सकते हैं |
3) Financial Ratios.
फाइनेंशियल रेश्यो से हमें कंपनी की प्रॉफिटेबिलिटी, लिक्विडिटी, सॉल्वेंसी, और वैल्यूएशन आदि के बारे में पता चलता है | या फिर हम कह सकते हैं, कि फाइनेंशियल रेश्यो से हमें कंपनी की फाइनेंसियल हेल्थ के बारे में पता चलता है | मतलब कंपनी के पास कितनी equity है, कंपनी ने कितना लोन ले रखा है, कंपनी का नेट प्रॉफिट कितना है, आदि के बारे में हम फाइनेंशियल ratios से जान सकते हैं |
ध्यान दें – फाइनेंशियल रेश्योस से एक ही इंडस्ट्री की दो या दो से अधिक कंपनियों का कंपैरिजन आसानी से कर सकते हैं |
ध्यान दें – हमें एक रेश्यो पर निर्भर होकर कभी भी इन्वेस्टमेंट नहीं करना चाहिए |
i) Profitability Ratios
प्रॉफिटेबिलिटी रेश्यो से हमें कंपनी की प्रॉफिटेबिलिटी के बारे में पता चलता है | साथ ही हम प्रॉफिटेबिलिटी रेश्यो से या भी जान सकते हैं, कि कंपनी के लिए कितना मुश्किल या आसान है, प्रॉफिट जनरेट करना |
a)Gross Profit Margin
Gross profit margin एक फाइनेंशियल रेश्यो है | जो हमें यह बताता है, कि अगर कंपनी के रेवेन्यू में से हम उसके प्रोडक्ट को बनाने में लगे डायरेक्ट कॉस्ट को माइनस कर दें | तो रेवेन्यू का कितना हिस्सा कंपनी के लिए बचेगा |
Gross Profit Margin को कैलकुलेट करने का फार्मूला = Revenu – Cost of Goods Sold / 100 होता है |
ध्यान दें – ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन को ग्रॉस मार्जिन भी कहते हैं |
उदाहरण के लिए | मान लीजिए – एक कॉपी बनाने वाली कंपनी है, जिसे एक कॉपी सेल करने पर ₹100 का रेवेन्यू होता है और अगर कॉपी बनाने की कॉस्ट ₹20 है | इस तरह ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन 100 – 20 / 100 = 80% होगा |
ध्यान दें – किसी भी कंपनी की ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन बढ़ने का दो कारण होता है –
1) या तो कंपनी के प्रोडक्ट की मार्जिन ज्यादा है |
2) या फिर कंपनी के प्रोडक्ट की COGS कम है |
b) Operating profit margin
Operating profit margin एक फाइनेंशियल रेश्यो है | जो हमें बताता है कि कंपनी अपने सेल्स पर कितना प्रॉफिट बना रही है |
Operating profit margin का फार्मूला = Operating Profit / Net Sales * 100 होता है |
अगर किसी कंपनी का ऑपरेटिंग प्रॉफिट मार्जिन ज्यादा है तो इसका मतलब कि वह कंपनी अपनी सेल्स पर ज्यादा प्रॉफिट बना रही है | जोकि इन्वेस्टर के लिए लॉन्ग टर्म पर ज्यादा मुनाफा देगी |
c) Net profit margin(PAT)
Net profit margin एक फाइनेंशियल रेश्यो है | जो हमें बताता है, कि कंपनी अपने रेवेन्यू पर कितना नेट प्रॉफिट बना रही है | इसे हम परसेंटेज में show करते हैं | Net Profit Margin को हम Profit After Tax (PAT) भी कहते हैं |
Net profit margin का फार्मूला = Net Income / Revenu * 100 होता है |
ध्यान दें – किसी भी कंपनी का नेट प्रॉफिट मार्जिन ज्यादा होने के दो कारण होते हैं – या तो कंपनी का मार्जिन ज्यादा है, या फिर कंपनी का एक्सपेंस कम है |
ध्यान दें – नेट प्रॉफिट मार्जिन जितना ज्यादा रहे उतना ही अच्छा होता है |
नेट प्रॉफिट मार्जिन से हमें दो बातों का पता चलता है –
अगर किसी कंपनी का नेट प्रॉफिट मार्जिन लगातार हर साल कम हो रहा है, तो इसका मतलब उस कंपनी का बिजनेस कमजोर है, और अगर किसी कंपनी का नेट प्रॉफिट मार्जिन लगातार हर साल बढ़ रहा है | तो इसका मतलब उस कंपनी का बिजनेस मजबूत है और यह लॉन्ग टर्म में अच्छा रिटर्न दे सकती है |
ध्यान दें – नेट इनकम और रेवेन्यू दोनों ही हमें कंपनी की इनकम स्टेटमेंट से देख सकते हैं |
d) ROA
ROA का फुल फॉर्म Return on Assets होता है | जिससे हम यह जान सकते हैं, कि एक कंपनी एक fixed time में अपने टोटल ऐसेट पर कितना प्रॉफिट बना रही है | ROA को कैलकुलेट करने के लिए हमें नेट इनकम को एवरेज टोटल ऐसेट से डिवाइड करना होता है |
ROA = Net Income / Average Total Assets
ध्यान दें – जिसमें नेट इनकम को कंपनी की इनकम स्टेटमेंट से और एवरेज टोटल ऐसेट को बैलेंस शीट से देख सकते हैं |
Average Total Asset को कैलकुलेट करने के लिए फाइनेंशियल ईयर का total assets at starting और total assets at ending दोनों का एवरेज जोड़ कर 2 से डिवाइड करना होता है |
Average Total Assets = Total assets at starting + Total assets at ending / 2
e) ROE
ROE जिस का फुल फॉर्म रिटर्न ऑन इक्विटी होता है | जो कि एक प्रॉफिटेबल रेश्यो है | जिसका मतलब किसी कंपनी में इन्वेस्ट करने पर आपको उस कंपनी में कितना रिटर्न मिला या फिर कंपनी अपने शेरहोल्डर्स के पैसों पर कितना प्रॉफिट बना रही है |
ROE को कैलकुलेट करने का फार्मूला – Net Income / Total Equity * 100
ध्यान दें – Net Income (PAT) को हम कंपनी की इनकम स्टेटमेंट से और टोटल अर्निंग या शेयर होल्डर इक्विटी को बैलेंस शीट से देख सकते हैं |
f) ROCE
Roce जिस का फुल फॉर्म रिटर्न ऑन कैपिटल एंप्लॉयड होता है | जो कि एक प्रॉफिटेबल रेश्यो है | जिसका मतलब है, कि एक कंपनी अपने कैपिटल एंप्लॉयड पर कितना प्रॉफिट बना रही है | (कैपिटल एंप्लॉयड से मतलब है, कि कंपनी अपने बिजनेस में टोटल कितना कैपिटल यूज कर रही है)
ROCE को कैलकुलेट करने का फार्मूला – Earnings Before Interest & Taxes (EBIT) / Capital Employed * 100
ध्यान दें – Capital Employed को हम दो तरह से कैलकुलेट कर सकते हैं –
>> Capital Employed = Total Assets – Current Liabilities.
>> Capital Employed = Fixed Assets + Working Capital.
ध्यान दें – जब कंपनी के पास debt ना हो, तो ROE देखना चाहिए और जब कंपनी के पास debt हो, तो ROCE देखना चाहिए | क्योंकि कभी-कभी कंपनी के डेट लेने से भी ROE बढ़ जाता है |
ii) Liquidity Ratios
Liquidity Ratio से हमें पता चलता है, कि एक कंपनी शॉर्ट-टर्म में कितनी आसानी से अपना डेट चुका सकती है |
a) Cash Ratios
Cash Ratio जो 1 या 2 दिन में ही कैश में कन्वर्ट हो सकता है | उदाहरण के लिए – Cash & Deposite, Short -term Investments.
Cash Ratio को कैलकुलेट करने का फार्मूला Cash & Cash Equivalents / Current Liabilities होता है |
ध्यान दें – एक Ideal Cash Ratio 0.5 से 1 के बीच में होना चाहिए |
b) Quick Ratios
Quick Ratio ऐसे assets जिन्हें 1 से 2 महीनों में कैश में कन्वर्ट किया जा सकता है | Quick Ratio को Acid Test Ratio भी कहा जाता है |
Quick Ratio को कैलकुलेट करने का फार्मूला Current Assets – Inventory / Current Liabilities होता है |
ध्यान दें – एक Ideal Quick Ratio 1 या 1 से ज्यादा होना चाहिए |
c) Current ratios
Current Ratio से हमें यह पता चलता है कि एक कंपनी अपने आने वाले 1 साल में अपनी लायबिलिटीज को pay करने में कितनी कैपेबल है | Current Ratio को Working Capital Ratio भी कहा जाता है |
Current Ratio को कैलकुलेट करने का फार्मूला Current Asset / Current Liabilities होता है |
ध्यान दें – करंट ऐसेट और करंट लायबिलिटी दोनों ही कंपनी की बैलेंस शीट से मिल जाती है |
ध्यान दें – एक Ideal current ratio 1.33 से 3 के बीच में होना चाहिए |
iii) Solvency Ratios
Solvency Ratio से हमें पता चलता है, कि एक कंपनी लॉन्ग-टर्म में कितनी आसानी से अपना डेट चुका सकती है |
ध्यान दें – Solvency Ratio को हम दूसरे नमो से भी जानते है | जैसे – Laverage Ratio और Debt Ratio.
a) Debt-to-Asset Ratio
Debt-to-Asset Ratio से हम किसी कंपनी के टोटल ऐसेट पर कितना परसेंटेज डेट लिया गया है | यह जान सकते हैं, मतलब टोटल ऐसेट पर डेट का कितना भाग है या हमें debt-to-asset ratio से समझ आता है |
Debt-to-asset Ratio को कैलकुलेट करने का फार्मूला Total Debt / Total Assets होता है |
ध्यान दें – Total debt = Long Term Debt + Short Term Debt होता है, जो हम कंपनी की बैलेंस शीट से देख सकते हैं |
ध्यान दें – एक Ideal Debt-to-Asset Ratio < 0.5 से कम होना चाहिए |
b) Debt-to-Equity Ratio
Debt – to – equity ratio से हमें कंपनी के डेट के बारे में पता चलता है | जैसे कंपनी ने कितना डेट लिया है, या फिर अपने शेरहोल्डर्स के ₹1 पर कितने रुपए का डेट ले रखा है | Debt-to-equity ratio को कैलकुलेट करने का फार्मूला – Total Liabilities / Total Share Holder’s Equity
ध्यान दें – जिन कंपनी का Debt-to-equity ratio 1 से कम होता है, उन्हें अच्छी कंपनी माना जाता है |
IF & BUT बैंक और हैवी कंपनी जैसे – माइनिंग, कंस्ट्रक्शन आदि को छोड़कर जिनका Debt-to-equity ratio ज्यादा होता है |
c) Debt Service Coverage Ratio (DSCR)
DSCR से हमें यह पता चलता है कि एक कंपनी कितनी कंफर्टेबल है एनुअल डेट पेमेंट के लिए |
DSCR को कैलकुलेट करने का फार्मूला Operating Profit / Debt Service होता है |
ध्यान दें – Debt Service = Principal Payment + Interest Payment होता है, जो हम कंपनी की कैश फ्लो स्टेटमेंट से देख सकते हैं |
ध्यान दें – एक Ideal DSCR 1.5 से 2 के बीच में होना चाहिए |
d) Interest Coverage Ratio
Interest Coverage Ratio हमें बताता है कि एक कंपनी कितनी आसानी से इंटरेस्ट पे कर सकती है |
Interest coverage ratio का फार्मूला = Earnings Before Interest & Taxes (EBIT) / Interest Expense
ध्यान दें – EBIT और Interest Expense (जिसका मतलब अपने लोन पर कंपनी कितना इंटरेस्ट दे रही है) दोनों ही आपको कंपनी के इनकम स्टेटमेंट से देखने को मिल जाएगा |
ध्यान दें – जिस कंपनी का interest coverage ratio जितना ज्यादा होता है | उस कंपनी को उतना ही फाइनेंशली स्ट्रांग माना जाता है |
iv) Activity Ratios
Activity Ratio से हमें यह पता चलता है, कि एक कंपनी की operational efficiency मतलब कंपनी अपनी working capital(current assets, current liabilities) और लॉन्ग-टर्म ऐसेट को कैसे मैनेज करती है | जिससे उसकी प्रोडक्शन ज्यादा-से-ज्यादा हो सके |
ध्यान दें – Activity Ratio को हम दूसरे नमो से भी जानते है | जैसे – Efficiency Ratios और Asset Utilization Ratios.
a) Inventory Turnover Ratio
आइए inventory turnover ratio से पहले हम इन्वेंटरी के बारे में जान ले –
Inventory किसी कंपनी के पास रखे हुए प्रोडक्ट जो अभी सेल नहीं हुए हैं, साथ ही raw material जिनसे अभी प्रोडक्ट बनाया नहीं गया है |
Inventory के प्रकार –
Inventory के तीन प्रकार होते हैं –
Raw Materials | Work in Process | Finished Goods |
ऐसे materials जिनसे कंपनी अभी प्रोडक्ट बनाएगी | | ऐसे raw materials जिन पर काम शुरू हो गया है | पर वह finished goods नहीं बने हैं | | ऐसे फर्नीचर जो पूरी तरह से तैयार है | पर इन्हें सेल नहीं किया गया है | |
Example – Wood | Chair जिसका अभी पेंट होना बाकी है | | Chair जो रेडी है, सेल होने के लिए | |
ध्यान दें – इन्वेंटरी उन्हीं कंपनी की होती है | जो प्रोडक्ट सेल करती है |
ध्यान दें – हम इन्वेंटरी को बैलेंस शीट में देख सकते हैं |
Inventory Turnover Ratio से हम एक कंपनी एक फिक्स टाइम में अपनी इन्वेंटरी कितनी बार सेल करती हैं या कंपनी के प्रोडक्ट कितनी तेजी सेल हो रहे हैं, यह जान सकते हैं |
Inventory Turnover Ratio को कैलकुलेट करने का फार्मूला Cost of Goods Sold / Average Inventory होता है |
ध्यान दें – Average Inventory = Starting Inventory + Ending Inventory / 2 होता है |
b) Asset Turnover Ratio
Asset Turnover Ratio जो हमें यह बताता है कि एक कंपनी अपने एक रुपए के एसेट पर कितने रुपए का रेवेन्यू जनरेट कर रही है |
Asset Turnover Ratio को कैलकुलेट करने का फार्मूला Revenu / Average Total Assets होता है |
ध्यान दें – Average Total Assets = Starting Total Asset + Ending Total Asset / 2 होता है |
ध्यान दें – रेवेन्यू को इनकम स्टेटमेंट से और एवरेज टोटल ऐसेट को बैलेंस शीट से देख सकते हैं |
v) Valuation Ratio
Valuation ratio से हम किसी भी कंपनी की राइट वैल्यू को देखते हैं | मतलब कौन-सा शेयर खरीदने के लिए कितना सस्ता (undervalued) या महंगा (overvalued) है | जिससे हम इन्वेस्टमेंट डिसीजन लेते हैं |
a) P/E Ratio
P/E ratio का फुल फॉर्म = Price – to – Earning ratio होता है | किसी भी कंपनी का P/E ratio हमें यह बताता है, कि हमें उस कंपनी में ₹1 कमाने के लिए कितना पैसा देना पड़ेगा | साथ ही P/E ratio हमें या भी बताता है, कि दो एक जैसी कंपनी में से किसमें इन्वेस्ट करना सही/सस्ता रहेगा |
P/E ratio को कैलकुलेट करने के लिए हमें कंपनी के शेयर प्राइस को उसके Earning per Share यानी कि EPS से डिवाइड करना होता है |
P/E Ratio = Current Market Price of One Share / Earning Per Share(EPS)
उदाहरण के लिए | मान लीजिए – xyz कंपनी का शेयर प्राइस ₹1,000 है, और EPS 10 है | तो कंपनी का P/E ratio 100 होगा | इस तरह xyz कंपनी में हमें एक रुपए कमाने के लिए ₹100 देने होंगे |
b) P/B Ratio
P/B Ratio से पहले आइए जानते हैं Book Value के बारे में –
Book Value को हम दूसरे नमो से भी जानते हैं | जैसे – Net Worth, Owner’s Equity, Shareholders Equity और Stockholders Equity.
Book Value का मतलब किसी कंपनी के टोटल असेट्स को बेचकर उस कंपनी की टोटल लायबिलिटीज को पे करने के बाद जो पैसा बचेगा उसे ही कंपनी की बुक वैल्यू कहते हैं |
Book Value को कैलकुलेट करने का फार्मूला Total Asset – Total Liabilities होता है |
ध्यान दें – Intangible Asset बुक वैल्यू में कैलकुलेट नहीं होते |
ध्यान दें – Market Value < Book Value से कम है, तो वह कंपनी एक अंडरवैल्यूड हो सकती है |
बुक वैल्यू को देखने के लिए 2 रेश्योस का यूज किया जाता है –
1) BOOK VALUE PER SHARE (BVPS)
BVPS को कैलकुलेट करने का फार्मूला Book Value / Total no. of Share होता है |
ध्यान दें – जो बुक वैल्यू हमें ट्रेडिंग एप्स पर दिखाई देती है | वह BVPS ही होता है |
2) PRICE-TO-BOOK RATIO (P/B RATIO)
P/B Ratio को कैलकुलेट करने का फार्मूला Share Price / Book Value per Share होता है |
ध्यान दें – अगर P/B ratio < 1 है | तब हम कह सकते हैं कि Share Price < Book Value per Share से कम है, और कंपनी अंडरवैल्यूड हो सकती है |
c) P/S Ratio
P/S Ratio का फुल फॉर्म = Price-to-Sales Ratio होता है | जो की एक वैल्यूएशन रेश्यो है | जिससे हमें पता चलता है कि कंपनी के सेल्स के आधार पर लोग उस कंपनी में कितने रुपए देने को तैयार हैं | उदाहरण के लिए – अगर किसी कंपनी का P/S ratio 2 है, तो इसका मतलब है, कि कंपनी के ₹1 सेल्स के लिए लोग ₹2 देने को तैयार है | यानी कि कंपनी का मार्केट केपीटलाइजेशन उसकी सेल्स से दोगुना है |
P/S ratio को हम दूसरे नामों से भी जानते हैं | जैसे – PSR, Sales Multiple, और Revenu Multiple.
P/S ratio कैलकुलेट करने का फार्मूला है – Market Capitalization / Annual Sales
ध्यान दें – Lower P/S ratio = Undervalued.
Higher P/S ratio = Overvalued.
ध्यान दें – Future Sales Growth वाली कंपनी का P/S ratio ज्यादा होता है |
d) EPS
EPS एक नंबर होता है, जो यह बताता है कि एक फिक्स टाइम इंटरवल में एक कंपनी अपने हर कॉमन शेयर पर कितने रुपए का प्रॉफिट बना रही है |
EPS का फुल फॉर्म Earning Per Share होता है | जिससे इन्वेस्टर्स कंपनी की earning power को जान सकते हैं | मतलब जिस कंपनी की earning power जितना ज्यादा होगी उस कंपनी के शेयर प्राइस उतना ही ज्यादा बढ़ सकते है |
EPS को कैलकुलेट करने का फार्मूला Net Income – Preferred Dividend / Average no. of Shares Outstanding होता है |
ध्यान दें – जरूरी नहीं कि हर कंपनी का preferred dividend हो |
ध्यान दें – जहां जिस EPS की बात की गई है | वह Basic EPS है | इसके अलावा Diluted EPS भी होता है जिसके बारे में आपको FAQ में मिल जाएगा |
ध्यान दें – अगर कंपनी का आउटस्टैंडिंग शेयर बढ़ेगा, तो EPS घटेगा | वहीं अगर कंपनी का आउटस्टैंडिंग शेयर घटेगा, तो EPS बढ़ेगा |
e) PEG Ratio
PEG Ratio से हम P/E और Growth का रिलेशन जान सकते हैं | मतलब किसी कंपनी का राइट P/E कितना होना चाहिए यह कंपनी की ग्रोथ पर डिपेंड करता है | PEG Ratio का फुल फॉर्म Price / Earnings-to-Growth Ratio होता है |
ध्यान दें –
1)PEG Ratio < 1 से कम है | तो कंपनी अंडरवैल्यूड मानी जाएगी |
2)PEG Ratio = 1 के बराबर है | तो कंपनी ना ही अंडरवैल्यूड और ना ही ओवरवैल्यूड मानी जाएगी |
3)PEG Ratio > 1 से ज्यादा है | तो कंपनी ओवरवैल्यूड मानी जाएगी |
उदाहरण के लिए | मान लीजिए – दो कंपनी है, xyz और abc नाम की |
XYZ | ABC |
Earning Growth = 10% | Earning Growth = 20% |
P/E Ratio = 15 | P/E Ratio = 15 |
PEG Ratio = 15/10 = 1.5 | PEG Ratio = 15/20 = 0.75 |
P/E Ratio देखने पर दोनों ही कंपनी अंडरवैल्यूड लग रही है | पर जब हमने इन्हीं दोनों कंपनी को PEG Ratio से देखा तो पता चला की xyz कंपनी ओवरवैल्यूड वही abc कंपनी अंडरवैल्यूड है |
ध्यान दें – PEG Ratio P/E Ratio से अच्छा होता है | क्योंकि यह कंपनी की ग्रोथ को दर्शाता है | वही P/E Ratio कंपनी की cheapness को दर्शाता है |
Share ko kaise analyze karte hai?
शेयर को एनालाइज करने के लिए | एक सक्सेसफुल इन्वेस्टर हमेशा 2 approach में से किन्ही एक approach का ही यूज करता है |
Top-Down Approach | Bottom-Up Approach |
Top-Down Approach में हम सबसे पहले Economy का एनालाइज करते हैं, फिर Industry का एनालाइज करते हैं और अंत में Company का एनालाइज करते हैं | | वही Bottom-Up Approach में हम सबसे पहले Company का एनालाइज करते हैं, फिर Industry का एनालाइज करते हैं और अंत में Economy का एनालाइज करते हैं | |
अब आइए जानते हैं – Economy, Industry और Company के बारे में |
Economy – जब भी हम economy का एनालाइज करते हैं | तो इसमें ग्लोबल इकोनामी और लोकल इकोनामी दोनों का एनालाइज yearly, monthly, weekly और daily बेसिस चार्ट को देखकर किया जाता है | मतलब इन्वेस्टर्स यह जानने की कोशिश करते हैं कि ग्लोबल मार्केट इकोनामी और लोकल मार्केट इकोनामी का ट्रेंड कैसा है |
ध्यान दें – जब भी हम Economy को एनालाइज करते हैं | तो उसमें हम दो चीजों पर फोकस करते हैं – GDP और Physical Budget.
Industry – इंडस्ट्री का भी एनालाइज yearly, monthly, weekly और daily बेसिस चार्ट को देखकर किया जाता है | मतलब इन्वेस्टर्स या जानने की कोशिश करते हैं कि कौन सी इंडस्ट्री फ्यूचर में अच्छा परफॉर्म करेगी |
ध्यान दें – इंडस्ट्री कई सारी होती है | जैसे – Tech Industry, Oil & Gas Industry, Auto Industry, Chemical Industry, Pharma Industry, Banking/Finance Industry आदि |
Company – कंपनी का भी एनालाइज yearly, monthly, weekly और daily बेसिस चार्ट को देखकर किया जाता है | मतलब इन्वेस्टर्स यह जानने की कोशिश करते हैं कि कौन-सी इंडस्ट्री की कौन-सी कंपनी फ्यूचर में अच्छा परफॉर्म करेंगी |
ध्यान दें – जब भी हम Company का एनालाइज करते हैं | तो हम उसे दो पैरामीटर पर एनालाइज करते हैं | पहला Qualitative और दूसरा Quantitative.
ध्यान दें – Top-Down Approach और Bottom-Up Approach दोनों ही approach ना ही अच्छे होते हैं और ना ही खराब होते हैं यह पूर्णता: आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप किस approach के साथ ज्यादा comfortable और confidence है |
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FAQ –
Ques – Balance Sheet Equation kya hota hai?
Ans – Assets = Equity + Liabilities.
Ques – Gross Profit vs Net Profit kya hota hai?
Ans – जब हम Revenu – Manufacturing Cost करते हैं | तो हमें Gross Profit मिलता है |
वही जब हम Gross Profit – Expenses करते हैं | तो हमें Net Profit मिलता है |
Ques – Operating Profit vs Non – Operating Profit kya hota hai?
Ans – Operating Profit वह प्रॉफिट होता है, जो कंपनी अपने प्रोडक्ट को sell कर के जनरेट करती है | Operating Profit का फार्मूला = EBIT – Non-Operating Income + Non-Operating Expenses होता है |
वही Non-Operating Profit वह प्रॉफिट होता है, जो कंपनी अपने प्रोडक्ट के अलावा दूसरे जगह से जनरेट करती हैं | जैसे – कंपनी ने कोई लैंड बेच दी, शेयर्स बेच दिए या एफडी पर इंटरेस्ट मिला आदि |
Ques – Share Holder’s Equity kya hota hai?
Ans – Share Holder’s Equity वह पैसा होता है | जो कि कंपनी के owners के द्वारा कंपनी में लगाया जाता है | Share holder’s equity को कैलकुलेट करने का फार्मूला = Total Asset – Total Liabilities होता है |
Ques – ROE vs ROCE vs ROIC kya hota hai?
Ans – आइए इसे एक उदाहरण से समझते हैं | मान लीजिए – आपको 10 lakh इक्विटी पर 5 lakh का रिटर्न मिला | तो आपका ROE = 5/10*100 = 50% हो जाएगा | अब आपने उस पर 20 lakh का डेट ले लिया तब आपका ROCE = 5/30*100 = 16.66% हो जाएगा | पर आपने अपने टोटल इक्विटी का 4 lakh यूज नहीं किया तब आपका ROIC = 5/26*100 = 19.23% हो जाएगा |
Ques – Undervalued vs Overvalued Share kya hota hai?
Ans – जब Share Price Intrincis Value से कम होता है | तो उसे Undervalued Share कहते हैं |
वहीं जब Share Price Intrincis Value से ज्यादा होता है | तो उसे Overvalued Share कहते हैं |
Ques – Market Value vs Face Value vs Book Value kya hota hai?
Ans – Market Value – वह वैल्यू होती है, जिस प्राइस पर शेयर ट्रेड कर रहा है |
Face Value – जब कंपनी के प्रमोटर्स कंपनी के शुरू में शेयर की वैल्यू डिसाइड करते हैं तो उसे फेस वैल्यू कहते हैं |
Book Value – यह वह पर शेयर अमाउंट बताता है | जो शेरहोल्डर्स को मिल सकता है | अगर कंपनी बंद हो जाती है | या उसके ऐसैट्स को बेच दिया जाता है, लायबिलिटीज को पे करने के लिए |
Ques – Inventory Turnover Days kya hota hai?
Ans – जब 365 days को Inventory Turnover Ratio से डिवाइड किया जाता है | तो हमें Inventory Turnover Days मिलता है | मतलब कोई कंपनी कितने दिनों में अपनी पूरी इन्वेंटरी सेल की है | यह हम Inventory Turnover Days से जान सकते हैं |
Ques – Diluted EPS kya hota hai?
Ans – Diluted EPS को कैलकुलेट करने का फार्मूला Net Income – Preferred Dividend / Average no. of Shares Outstanding + Total Convertible Shares या Securities होता है |
Ques – EBIT vs EBITDA kya hota hai?
Ans – EBIT का फुल फॉर्म Earnings Before Interest & Taxes होता है | EBIT को कैलकुलेट करने का फार्मूला Net Profit + Interest + Taxes होता है |
EBITDA का फुल फॉर्म Earnings Before Interest & Taxes Depriciation and Amortization होता है |
EBITDA को कैलकुलेट करने का फार्मूला EBIT + Amortization(Intangible Asset) + Depreciatoin(Fixed Asset) होता है |
ध्यान दें – कई लोग EBIT या EBITDA को ही Operating Profit समझ लेते हैं | यह सही भी है और नहीं भी | मतलब कि यह सही तब होगा जब कंपनी की Income Statement में Other Income या Non-operating Income ना हो और अगर है, तो या गलत होगा |
Ques – TTM kya hota hai?
Ans – TTM का मतलब Trailing 12 Months होता है |
Ques – Firm vs Industry kya hota hai?
Ans – Firm एक ऑर्गेनाइजेशन होता है | जो सामान को खरीदता है, बनाता है और बेचता है | वही Industry group of firms होती है | उदाहरण के लिए – Ambuja Cement, ACC Cement, JK Cement, Ultra Tech Cement यह सब firms हैं और यह सब एक ही इंडस्ट्री से belong करती है | जो की Cement Industry है |