Derivatives kya hota hai?

Derivative kya hota hai?

Derivative kya hota hai | Derivative ke types | Forwards Derivative kya hota hai | Futures Derivative kya hota hai | Options Derivative kya hota hai | Swaps Derivative kya hota hai | F&O ki treading kaise karte hai |

Derivatives का मतलब एक ऐसी चीज जो किसी और चीज से आई हो या किसी और चीज पर based हो, और एक डेरिवेटिव जिस पर based होता है | उसे Underlying Asset / Underlying कहते हैं | हर डेरिवेटिव की प्राइस उसकी underlying asset पर depend होती है | जिसका मतलब underlying asset की प्राइस बढ़ेगी तो डेरिवेटिव की प्राइस भी बढ़ेगी और अगर underlying asset की प्राइस घटेगी तो डेरिवेटिव की प्राइस भी घटेगी |
उदाहरण के लिए | मान लीजिए – Milk एक underlying asset है | जिसका डेरिवेटिव Curd है | अब अगर Milk की प्राइस बढ़ती है | तो Curd की प्राइस भी बढ़ेगी और अगर Milk की प्राइस घटेगी तो Curd की प्राइस भी घटेगी |
ठीक इसी तरह स्टॉक मार्केट में फाइनेंशियल डेरिवेटिव्स होते हैं | जिनके Underlying Asset – Stock Derivative, Index Derivative, Currency Derivative, Interest Rate Derivative और Commodity Derivative होते हैं |

हमे derivative contract में trading क्यू करना चाहिए? 
दो कारण जिनकी वजह से हमें derivative में trading करना चाहिए |
1. Speculation(जिसका मतलब to earn profit) और
2. Hedging(जिसका मतलब to minimize the losses)

ध्यान दें – Derivatives एक Zero Sum Game होता है | जिसका मतलब यह है की यहाँ किसी का फायदा तभी होता है | जब किसी का नुकसान होता है | आसान शब्दो में कहे तो अगर एक party को profit होगा | तो दूसरी party को loss जरूर होगा | इसीलिए जब भी हम F&O में trading करते है | तो हमे fundamental analysis और technical analysis दोनों की basic knowledge होनी चाहिए | क्योकि F&O एक short term game जिसमे risk बहुत ज्यादा है |

two happy man observes the derivative market

Derivative ke type?

Derivatives के mainlly चार type होते हैं –
Forwards, Future, Option और Swaps

Forwards Derivative?

हम अक्सर देखते हैं कि अचानक से किसी चीज की प्राइस बहुत बढ़ जाती है, या बहुत घट जाती है, और इस वजह से कुछ चीज में बिजनेस करने वाले लोगों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है |
अगर हम rice की बात करें | तो अक्सर rice की प्राइस किसानों की मंडी में चेंज होती रहती है | जिस वजह से कभी rice फार्मर को लॉस उठाना पड़ता है | तो कभी उन कंपनी को लॉस होता है | जो फार्मर से rice buy करती है |
उदाहरण के लिए | मान लीजिए – बिनोद एक rice फार्मर है, और वह XYZ लिमिटेड को हर साल अपना rice sell करता है | अगर बिनोद को rice की फार्मिंग करने में कॉस्ट ₹3000 प्रति क्विंटल  आ रही है | तो जब भी प्राइस ₹3000 प्रति क्विंटल से कम होने लगेगी | तब बिनोद  को नुकसान होने लगेगा | वहीं अगर XYZ लिमिटेड को ₹5000 प्रति क्विंटल के ऊपर की प्राइस पर buy करने पर लॉस होता है | तो जब भी प्राइस ₹5000 प्रति क्विंटल से ज्यादा होगी | XYZ लिमिटेड को नुकसान होने लगेगा | तो इस तरह rice की प्राइस कम या ज्यादा होने से बिनोद और XYZ लिमिटेड दोनों को नुकसान हो सकता है |

इसलिए इस तरह के नुकसान से बचने के लिए फॉरवर्ड की शुरुआत हुई थी | Rice की प्राइस कम या ज्यादा होने पर दोनों को नुकसान ना हो इसके लिए बिनोद और XYZ लिमिटेड एक contract करते हैं | जिसके अनुसार कुछ समय बाद एक फिक्स  डेट पर XYZ लिमिटेड बिनोद से एक फिक्स प्राइज पर फिक्स्ड क्वांटिटी राइस buy करेगी | यह contract होने से दोनों पार्टी को अब rice की प्राइस चेंज होने पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा | इसी contract को हम फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट या सिर्फ फॉरवर्ड कहते हैं |
आसान भाषा में कहें तो फॉरवर्ड एक buyers और seller के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट होता है |  जिसमें दोनों लोग भविष्य में एक फिक्स डेट पर किसी चीज की पहले से डिफाइन क्वांटिटी को एक फिक्स प्राइज पर बाय ओर सेल करने का कांटेक्ट करते हैं | इस फिक्स प्राइज को फॉरवर्ड प्राइज कहते हैं |

Example – मान लीजिए आज से 2 महीने बाद बिनोद और XYZ  लिमिटेड 10 क्विंटल rice को ₹4000 प्रति  क्विंटल के फारवर्ड प्राइस पर बाय ओर सेल करने का contract करते हैं | जैसा पहले देखा कि बिनोद की selling cost ₹3000 प्रति क्विंटल से ज्यादा है, और XYZ लिमिटेड के लिए भी buying प्राइस ₹5000 प्रति क्विंटल से कम है | इस तरह दोनों पार्टी को फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट से प्रॉफिट होगा और साथ ही दोनों राइस के प्राइस के change से होने वाले नुकसान से बच जाएंगे | अब अगर 2 महीने बाद राइस की प्राइस ₹2000 प्रति क्विंटल हो जाए | तो अगर बिनोद ने फॉरवर्ड contract नहीं किया होता | तो उसे बहुत नुकसान उठाना पड़ता | वही अगर 2 महीने के बाद राइस की प्राइस 5500 प्रति क्विंटल हो जाए | तो अगर XYZ लिमिटेड ने फॉरवर्ड contract नहीं किया होता | तो उसे बहुत नुकसान उठाना पड़ता |

ध्यान देने वाली बाते –
(1) फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें buyer और सेलर खुद डिसाइड करते हैं | जिस वजह से फॉरवर्ड में काउंटर पार्टी रिस्क होता है | यानी कि दोनों में से कोई पार्टी कॉन्ट्रैक्ट से पीछे हट सकती है | क्योंकि यहां पर कोई मिडिल मैन नहीं होता है | जो इस बात की गारंटी दे सके कि दोनों पार्टी कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार ही काम कर करेंगी |
(2) फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट दोनों पार्टी कितनी ईमानदार हैं, इस based पर होता है | 
(3) फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट की ट्रेडिंग OTC (over the counter) पर होती है |
फॉरवर्ड कि इसी प्रॉब्लम को देखते हुए फ्यूचर्स की शुरुआत की गई थी |

Future Derivative?

फ्यूचर्स और कुछ नहीं बस फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट है | जिनकी ट्रेडिंग एक्सचेंज पर होती है | यानी कि 1 फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट किसी एक्सचेंज पर ट्रेड होने लगे | तब हम उसे फॉरवर्ड नहीं बल्कि फ्यूचर कहेंगे | इस तरह फ्यूचर भी फॉरवर्ड की तरह buyer एंड सेलर का कॉन्ट्रैक्ट होता है |
जिसमें दोनों पार्टी किसी फ्यूचर डेट पर किसी फिक्स क्वांटिटी को एक सिक्स प्राइस पर बाय ओर सेल करने का कॉन्ट्रैक्ट करती है |
फ्यूचर एक्सचेंज पर ट्रेड होते हैं, और इस वजह से हम इसे आसानी से बाय ओर सेल कर सकते हैं | साथ ही एक्सचेंज पर ट्रेडिंग होने की वजह से यहां पर कोई डिफॉल्ट रिस्क नहीं होता है |
अगर हम ने एक कॉन्ट्रैक्ट किया है | तो हम उसके हिसाब से हमेशा ट्रांजैक्शन कर पाएंगे, जिस बात की गारंटी खुद exchange देता है | इसके अलावा जहां फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट कोई भी दो लोग मिलकर किसी भी चीज के ऊपर कर सकते हैं | वहीं फ्यूचर के साथ ऐसा नहीं होता है | क्योंकि फ्यूचर एक स्टैंडर्ड कॉन्ट्रैक्ट होता है, और हम उन्हीं चीजों के फ्यूचर कॉड्राइट बाय कर सकते हैं | जिनकी एक्सचेंज पर ट्रेडिंग होती है | 

फ्युचर डेरिवेटिव्स शॉर्ट टर्म के लिए होता है, और ये शॉर्ट टर्म 1 महीने, 2 महीने और 3 महीने तक होता है। अगर हम 1 महीने का फ्युचर कांट्रैक्ट करते हैं | तो उसे Near month कहा जाता है | इसी तरह जब आप 2 महीने का फ्युचर कांट्रैक्ट करते हैं | तो उसे Next Month कहा जाता है, और अगर आप 3 महीने का फ्युचर कांट्रैक्ट करते हैं | तो उसे Far month कहा जाता है। जैसे हर चीज की एक expiry date होती है | वैसे ही future की भी expiry date होती है, और future उस month के last thursday को expire होता है |
ध्यान दें – अगर thursday को कोई holiday पड़ जाता है | तो फिर future उस month के last wednesday को expire होगा |

Example – मान लीजिए एक गेहूं खरीददार (Wheat Buyer) का, एक गेहूं बेचने वाले किसान के साथ एक फ्युचर कांट्रैक्ट हो जाता है, कि वो 3 महीने बाद 2 क्विंटल गेहूं 2000 रुपए में खरीदेगा, और किसान उसे इतने में ही बेचेगा | भले ही मार्केट में उस समय गेहूं का price कितना भी क्यों न हो।
अब यहाँ पर किसान की जो पोजीशन है | उसे Short position कहा जाएगा | क्योंकि किसान बेच रहा है, वहीं खरीददार की जो पोजीशन है | उसे Long position कहा जाएगा | क्योंकि ये खरीदने वाला है।
अब दोनों ने तो 2000 रुपए में कांट्रैक्ट कर लिया है | लेकिन गेहूं का मार्केट प्राइस तो रोज अप और डाउन होगा। ऐसे में यहाँ पर तीन स्थितियां हो सकती है – 3 महीने बाद जब Square off आएगा | तो या तो गेहूं का मार्केट प्राइस बढ़ जाएगा या कम हो जाएगा या फिर उसी दाम पर स्थिर होगा।
अगर मान ले कि कांट्रैक्ट खत्म होने के दिन 2 क्विंटल गेहूं का मार्केट प्राइस बढ़कर 2000 रुपए से 2500 रुपए हो जाता है | तो उस स्थिति में क्या होगा? अब चूंकि दोनों पार्टी इस कांट्रैक्ट से बंधी हुआ है | इसीलिए खरीददार को उसे लेना ही पड़ेगा और किसान को बेचना ही पड़ेगा। 2 क्विंटल गेहूं का कांट्रैक्ट 2000 रुपए में हुआ है | इसीलिए उस खरीददार को तो वो 2000 रुपए में ही मिल जाएगा क्योंकि यही कांट्रैक्ट हुआ है। लेकिन चूंकि अब 2 क्विंटल गेहूं का मार्केट प्राइस 2500 रुपए हो गया है | इसीलिए उस खरीददार को 500 रुपए का फायदा हो जाएगा। कैसे होगा?
जाहिर है, वो खरीददार उस किसान से 2000 में खरीदेगा | लेकिन उतनी ही गेहूं का मूल्य मार्केट में अभी 2500 रुपया है | इसीलिए जब उसे मार्केट में बेचेगा तो उसे 500 रुपये का फायदा हो जाएगा | लेकिन उसी समय उस किसान को 500 रुपए का लॉस हो जाएगा। क्यों? क्योंकि मार्केट रेट अभी 2500 है | जबकि उसने 2000 में ही देने का कांट्रैक्ट कर लिया था। इसीलिए उसे 500 रुपए का लॉस उठाना पड़ेगा। तो यहाँ पर आपने देखा कि किसान को लॉस हुआ और उस खरीददार को फायदा हुआ। इसीलिए future एक zero sum game है |

इसी प्रकार से अगर देखें तो किसान को फायदा तभी होगा जब गेहूं का मार्केट प्राइस 2000 रुपए से कम जाएगा। जितना कम होगा उतना ही किसान को फायदा होगा। लेकिन अगर मार्केट प्राइस न घटता है और न ही बढ़ता है | तो ऐसे में दोनों को न तो लॉस होगा और न ही प्रॉफ़िट।

Future Derivative ka Settlement?

इतना पहले याद रखिए कि एक फ़िक्स्ड Margin amount ट्रेडिंग अकाउंट में रखना पड़ता है। ये कितना होता है | ये Broker डिसाइड करता है। मार्जिन अमाउंट वो कम-से-कम अमाउंट होता है | जितने में आपको ब्रोकर फ्युचर खरीदने देता है।
फ्यूचर्स में दो तरह से सेटेलमेंट होता है। पहला Cash Based Settlement है और दूसरा Delivery Based Settlement है । लेकिन ज़्यादातर Cash Based Settlement का ही उपयोग होता है।

Cash Based SettlementDelivery Based Settlement
जैसे अगर मान ले कि किसान को 500 रुपए का फायदा हुआ तो 500 रुपए किसान के अकाउंट में ट्रान्सफर हो जाएगा। इसी तरह अगर खरीददार को 500 रुपए का फायदा हुआ | तो 500 रुपए खरीददार के अकाउंट में क्रेडिट हो जाएगा।लेकिन अगर खरीददार कैश नहीं लेना चाहता है | बल्कि गेहूं ही लेना चाहता है | तो फिर उस किसान को उस गेहू की डेलीवेरी उसे देनी पड़ेगी। लेकिन आम तौर पर ऐसा होता नहीं है। क्यों नहीं होता है? क्योंकि खरीदने और बेचने के लिए आम मार्केट तो है ही।

कुल मिलाकर यही इसका बेसिक है | लेकिन अगर आप शेयर के माध्यम से इसे समझना चाहते हैं तो आइये उसे भी समझ लेते हैं। इससे थोड़ा और क्लैरिटी मिल जाएगी।
मान लीजिये कि XYZ कम्पनी के एक शेयर का आज की तारीख में price 100 रुपए है। अगर आपको ऐसा लगता है कि ठीक 2 महीने बाद इस शेयर price 200 रुपया हो जाएगा तो आप क्या करेंगे? आप आज ही 2 महीने बाद की तारीख के लिए एक फ्युचर कांट्रैक्ट साइन कर लेंगे।
इसका मतलब ये हुआ कि दो महीने बाद उस शेयर की कीमत भले ही कितना ही क्यों न हो आपको वो 100 रुपए में ही मिलेगा और अगर सच में शेयर की कीमत 2 महीने बाद 200 रुपए हो जाती है | तो आपको पूरे 100 रुपए का फायदा होगा। क्योंकि आपको तो वो 100 रुपए में ही मिला था | लेकिन अभी उसका मार्केट रेट 200 हो गया।
यहाँ पर आप एक बात बात गौर करेंगे कि आपने शेयर खरीदा ही नहीं आपने बस उसका फ्युचर खरीदा। ये तो इसका बेसिक कान्सैप्ट है |
लेकिन याद रखिए कि 1 शेयर का फ्युचर कभी भी नहीं बिकता है।
ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि अगर 1 शेयर का फ्युचर बिकने लगा तो फिर नॉर्मल शेयर और फ्युचर में अंतर ही क्या रह जाएगा।
फ्युचर इस मायने में अलग है कि जब आप किसी कंपनी के शेयर का फ्युचर खरीदते हैं | तो आपको शेयर का एक lot मिलता है। एक lot में कितना भी शेयर हो सकता है, ये कंपनी-कंपनी पर निर्भर करता है।
जैसे कि आप अगर XYZ कम्पनी की बात करें | तो उसके एक lot में 500 शेयर है। इसका मतलब ये हुआ कि जब भी आप XYZ कंपनी के शेयर का फ्युचर कांट्रैक्ट करेंगे तो आपके पास कुल 500 शेयरों का फ्युचर कांट्रैक्ट होगा।
यहाँ पर ब्रोकर का रोल बहुत ही अहम होता है। कैसे होता है? आइये ऊपर वाले उदाहरण को फिर से देखते हैं और समझते हैं।
मान लीजिये – आपके पास सिर्फ 5000 रुपए है और अभी XYZ कम्पनी के एक शेयर का मूल्य 100 रुपया है। यानी कि अगर आप नॉर्मल शेयर खरीदे तो आप इतने रुपए में आप XYZ कम्पनी के 50 शेयर खरीद सकते हैं। मार्केट ट्रेंड देखकर आपको लगता है कि 2 महीने बाद XYZ कम्पनी के एक शेयर का मूल्य 200 रुपया हो जाएगा।
यानी कि आज आप अगर इसे खरीद लेंगे तो 2 महीने बाद आपको एक शेयर पर नेट 100 रुपये का फायदा होगा। अगर दो महीने बाद सच में उस शेयर का मूल्य 200 रुपए हो जाता है तो आपको सच में एक शेयर पर 100 रुपए का फायदा हो जाएगा। यानी कि 50 शेयर पर 5000 रुपए का फायदा होगा।
लेकिन आप सोचिए कि अगर आपको XYZ कम्पनी का फ्युचर उसी 5,000 रुपए में मिल जाये, जो आपके पास अभी है | तो आपको कितना फायदा होगा? चलिये इसे कैलकुलेट करते हैं।
चूंकि XYZ कम्पनी के फ्युचर में 500 शेयर है | इसीलिए अगर आप नॉर्मल शेयर खरीदते, तो आपको 500 शेयर के 50,000 रुपया pay करना पड़ता और दो महीने बाद अगर एक शेयर का मूल्य 200 रुपए हो जाता | तो आपको 50,000 रुपए का फायदा होता। यानी कि आपने 500 शेयर के लिए 50,000 रुपए लगाए, तब जाकर आपको 50,000 रुपए का फायदा हुआ लेकिन क्या हो अगर आपको 50,000 का शेयर सिर्फ 5,000 रुपए में मिल जाये।
जी हाँ ऐसा ही होता है, आपका ब्रोकर आपको लीवरेज (Leverage) देता है। इसे एक तरह का उधारी ही समझिए। यानी कि उसी 5,000 रुपए में जहां आप सिर्फ 50 शेयर खरीद पाते वहीं आप अगर आप फ्युचर खरीदते है तो आपको 500 शेयर मिल जाता है।
चूंकि आपने सिर्फ 5,000 रुपए ही दिये हैं | इसीलिए बांकी का पैसा ब्रोकर को आपके लिए लगाना होगा। जितने पैसे ब्रोकर आपके लिए लगाता है उसे Leverage कहा जाता है और जितने पैसे आपको देने पड़ते है उसे Initial Margin Amount कहा जाता है। आम तौर पर Initial Margin Amount 10 से 20 परसेंट के आस-पास होता है।
हमारे केस में Initial Margin Amount 10 परसेंट है | यानी कि 5,000 रुपए। क्यों? क्योंकि हमारे एक lot में 500 शेयर्स है और एक का दाम 100 रुपए है। पूरे का दाम 50,000 रुपए हो गया, उसका 10 परसेंट 5,000 रुपए होता है।
अब दो महीने बाद अगर एक शेयर का मूल्य 200 रुपए होता है | तो आपको कुल 50,000 रुपए का फायदा होगा। क्यों? क्योंकि आप के पास कुल 50,000 रुपए के शेयर्स थे। यानी कि सिर्फ 5,000 रुपए से आपने 50,000 रुपए का प्रॉफ़िट जेनरेट कर लिया। जबकि आप नॉर्मल शेयर खरीदते तो आपको यही 50,000 रुपया कमाने के लिए 50,000 रुपए इन्वेस्ट करना पड़ता।
यही फ्युचर का सबसे बड़ा फायदा है और इसी कारण से ज़्यादातर लोग इसमें आते हैं। क्योंकि पैसे कम रहने के बावजूद भी फायदा बहुत बड़ा होता है।
ध्यान दें – ये बस एक उदाहरण है | एक्चुअल initial margin amount और एक्चुअल lot size इससे अलग हो सकता है।

Future Derivative ka Drawback?

लेकिन सबकुछ हमेशा अच्छा ही नहीं होता है। मान लीजिये कि अगर एक शेयर का मूल्य बढ़ने के बजाय घट जाए, तो फिर क्या होगा। अगर उस 100 रुपए वाले शेयर का मूल्य दो महीने बाद अगर 50 रुपए हो जाये तो।
तो ऐसी स्थिति में होगा ये कि चूंकि पूरे lot का price 50,000 रुपए है | इसीलिए 2 महीने बाद उस शेयर का मूल्य घटकर 25,000 हो जाएगा
यानी कि सीधे 25,000 रुपए का लॉस। लेकिन आपने तो सिर्फ 5,000 रुपए ही लगाए थे बाद बाँकी तो आपका ब्रोकर आपको लीवरेज दिया था। यानी कि और बचे हुए पैसे तो आपके ब्रोकर ने दिया था।
इसीलिए जब 25,000 रुपए का लॉस होगा तो आपने 5,000 रुपए तो पहले ही दे चुके है | इसीलिए अब आपको अपने पास से 20,000 रुपए ब्रोकर को देने पड़ेंगे।
यही इसका सबसे बड़ा drawback है। क्योंकि एक शेयर में उतना ही घाटा लगता है | जितना कि आपने इन्वेस्ट किया है। लेकिन फ्युचर में जितना आपका मूलधन था उससे भी कई गुना ज्यादा घाटा लग सकता है।
आपने ऊपर के उदाहरण में देखा ही कि जब घाटा हुआ तो 20,000 रुपए एक्सट्रा घाटा लग गया। वहीं अगर इसकी जगह पर शेयर होता तो ज्यादा-से-ज्यादा 5,000 रुपए का ही घाटा होता।
कुल मिलाकर यही है Future derivatives. जब आदमी इसमें कमाता है, तो रातों-रात करोड़पति बन जाता है, लेकिन जब गंवाता है, तो रातों-रात करोड़पति से रोडपति हो जाता है।
इसी में थोड़ा और रिस्क कम करने या फिर घाटा कम करने के लिए लाया गया Option.

Option Derivative?

फ्युचर डेरिवेटिव्स एक बाइंडिंग कांट्रैक्ट होता है | यानी कि एक बार अगर आप इस कांट्रैक्ट का हिस्सा हो गए तो आप उसके एक्सपाइरी डेट तक वापस नहीं आ सकते हैं। यानी कि बीच में कांट्रैक्ट को छोड़ने का कोई ऑप्शन आपके पास नहीं होता है |
लेकिन ऑप्शन डेरिवेटिव्स जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है | इसमें आपके पास एक ऑप्शन होता है, कि आप जब चाहे उस कांट्रैक्ट से बाहर आ सकते हैं।

Example – मान लीजिये आपको एक कार लेनी है | जिसकी कीमत 10 लाख रुपए है। आप जब उस कार को लेने शोरूम में जाते है | तो आपको पता चलता है कि वो कार अभी मार्केट में उपलब्ध नहीं है। आपको शोरूम का मैनेजर कहता है कि वो कार 2 महीने में आ जाएगी ।
आप उस कार को 2 महीने बाद खरीद सकते हैं, लेकिन आपको शोरूम मैनेजर बताता है कि चूंकि उस कार की डिमांड बहुत ज्यादा है | इसीलिए हो सकता है कि 2 महीने बाद जब वो कार मार्केट में आए | तो उसकी कीमत 12 लाख रुपए हो जाये। ऐसी में 2 महीने बाद आपको 2 लाख रुपए ज़्यादा देना पड़ेंगे।
इसी से बचने के लिए मैनेजर आपको एक सलाह देता है, कि आप 50,000 रुपए एडवांस में जमा कर दीजिये ताकि दो महीने बाद अगर उस कार की कीमत बढ़ भी जाये | तो भी आपको वो आज के प्राइस पर ही मिल जाएगी । आपने 50,000 रुपए देकर उस कार की बुकिंग करा ली। इसे कहा जाता है बुकिंग अमाउंट या फिर प्रीमियम।
अब इससे होगा ये कि कार की कीमत कितना भी क्यों न बढ़े | आपको वो 10 लाख रुपए में मिल जाएगी । लेकिन इस कांट्रैक्ट में आपके पास ऑप्शन ये है कि आप चाहे तो इस कांट्रैक्ट से बाहर भी आ सकते हैं। जैसे कि अगर 2 महीने बाद उस कार की कीमत बढ़ने के बजाय अगर घट जाये।
मान लेते हैं कि उस कार की कीमत 2 महीने बाद सिर्फ 9 लाख रुपए हो गई | ऐसी स्थिति में आप उसे 10 लाख में क्यों खरीदना चाहेंगे। तो जाहिर है आप इस कांट्रैक्ट से बाहर आ जाएँगे।
अगर आप बाहर आ गए तो आपको सिर्फ 50,000 रुपए का लॉस होगा | क्योंकि बुकिंग अमाउंट नॉन-रिफ़ंडेबल होता है। फिर भी आपको 2,50,000 लाख का फायदा हो जाएगा क्योंकि आपको वो कार मार्केट में सिर्फ 9 लाख में मिल रही है।

ध्यान दें – Option की ट्रेडिंग Over the Exchange (OTC) पर होती है |

Option Derivative ke Type?

Option derivative के दो type होते है –

1. Call Option

ऊपर वाले उदाहरण को ही लें तो इसमें यह हुआ है, कि जब हमें लगा कि आने वाले वक्त में कार की कीमत बढ़ने वाली है | तो एक छोटा सा प्रीमियम चुकाकर हमने उसे आज के प्राइस पर ही बुक कर लिया। इसी को कहते हैं Call option। जिस प्राइस पर हमने बुक किया उसे कहा जाता है Strike price.
अगर उस कार का प्राइस 2 महीने बाद सच में 12 लाख रुपए हो जाता है | तो आपको 2 लाख रुपए का फायदा हो जाएगा। कैसे? क्योंकि आपको वो सिर्फ 10 लाख में मिला है | लेकिन जब अब आप उसे बेचेंगे तो वो 12 लाख में बिक जाएगी |
ये जो उस कार का प्राइस दो महीने बाद 12 लाख हो गया है | उसे कहा जाता है Spot price. इस कांट्रैक्ट में जो ऑप्शन खरीदता है | उसे Option holder कहा जाता है, और जो ऑप्शन बेचता है | उसे Option writer कहा जाता है।

इसी कॉन्सेप्ट को आप शेयर में भी लगा सकते हैं | जब आपको लगता है कि किसी शेयर का प्राइस कुछ महीने बाद बढ़ने वाला है | तो आप उस शेयर को आज ही आज के प्राइस पर (जिसे कि स्ट्राइक प्राइस कहा जाता है) उस दिन खरीदने के लिए बुक कर सकते हैं। अगर सच में उसका प्राइस उस दिन बढ़ा (यानी कि स्पॉट प्राइस बढ़ा) तो आपको फायदा होगा और नहीं बढ़ा | तो आपको सिर्फ बुकिंग अमाउंट का ही लॉस होगा।
जैसे कि मान लीजिये XYZ के एक शेयर का मूल्य आज के डेट में 2000 रुपए है और आपको लगता है कि 3 महीने बाद उसकी कीमत 3000 रुपए हो जाएगी, तो आप पूरे दो हज़ार रुपए देकर शेयर खरीदने के बजाय सिर्फ 500 रुपए देकर उसे 3 महीने बाद खरीदने के लिए बुक करा लेंगे।
अगर 3 महीने बाद उस शेयर का दाम सचमुच 3000 रुपए हो गया | तो 500 रुपए का फायदा हो जाएगा। क्यों? क्योंकि 500 रुपए आपने बुकिंग अमाउंट भरी है और 2000 रुपए पर आपने कांट्रैक्ट साइन किया है। यानी कि आपका कुल 2500 रुपए जाएगा |
लेकिन जिस स्ट्राइक प्राइस पर आपने उस शेयर की बुकिंग कराई है | अगर स्पॉट प्राइस उससे भी नीचे चला जाता है | यानी कि आपने 2000 रुपए के स्ट्राइक प्राइस पर तो कांट्रैक्ट साइन की है लेकिन 3 महीने बाद अगर उसका स्पॉट प्राइस 1000 रह जाता है | तो जाहिर है आप उसे नहीं खरीदेंगे।
क्योंकि अगर आप उसे खरीद लिए तो आपको 2500 रुपए का लॉस होगा | लेकिन अगर आपने नहीं खरीदा | तो ऐसे में आपको सिर्फ 500 रुपए का लॉस होगा।

2. Put Option

लेकिन आपको लगता है कि अभी 2 महीने का समय है क्या पता इतने समय में गाड़ी खराब हो जाये या उसका एक्सिडेंट हो जाये और वो टूट जाये तो जाहिर है ऐसे में वो 500000 रुपये में तो नहीं ही बिकेगा।
ये सोचकर आप 10000 रुपए में गाड़ी का एक बीमा करा लेते हैं कि अगर गाड़ी 2 महीने के अंदर कभी भी खराब होता है तो बीमा कंपनी आपको उतने पैसे देगा।
इससे होगा ये कि अगर सही में इन दो महीने के अंदर आपकी गाड़ी खराब होती है | तो आपको 500000 रुपए तो बीमा कंपनी वाले से मिल ही जाएगा, इसके अलावे आपके पास कार तो है ही, और आपकी कार अगर खराब नहीं होती है | तो आपको उतना ही लॉस होगा जितना कि उस बीमा का प्रीमियम है | क्योंकि प्रीमियम अमाउंट वापस नहीं होता। कुल मिलाकर यही इसका बेसिक्स है।
इसको अगर आप शेयर पर अप्लाई करे तो Put option लोग तब खरीदते है | जब उन्हे लगता है कि शेयर का प्राइस भविष्य में गिरने वाला है। यानी कि Call option में आपको फायदा तब होता है | जब उस चीज़ का दाम स्ट्राइक प्राइस से ऊपर जाता है | लेकिन पुट ऑप्शन में स्पॉट प्राइस, स्ट्राइक प्राइस से जितना नीचे जाता है | उतना ही फायदा होता है।

Option’s Derivative Terminology?

1. ITM – अगर Spot price, Strike price से ज्यादा होता है | तो ऐसी स्थिति में हमें फायदा होता है। इसे In the money या ITM कहते हैं।
2. ATM – अगर Spot price और Strike price दोनों बराबर रहता है | तो उस स्थिति में हमें सिर्फ बुकिंग अमाउंट का लॉस होगा क्योकि बुकिंग अमाउंट का पैसा वापस नहीं होता। इसे ATM यानी कि AT The Money कहा जाता है।
3. OTM – अगर Spot price, Strike price से कम भी होता है | तब भी हमें अपने बुकिंग अमाउंट का ही लॉस होगा क्योकि तब हम उसे खरीदेंगे ही नहीं। ऐसी स्थिति को Out of the Money यानी कि OTM कहा जाता है।
4. Break Even – लेकिन अगर Spot price उतना ही बढ़ता है | जितना कि Strike price में बुकिंग अमाउंट जोड़ने पर होता है | तो आपको न फायदा होगा और न ही लॉस। Break even कहा जाता है।

Swaps Derivative?

Swaps एक derivative contract होता है, जिसका हिंदी मतलब अदला-बदली होता है | जिसमें दो पार्टी दो अलग-अलग फाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट पर based कैशफ्लो को एक्सचेंज करने का कॉन्ट्रैक्ट करती है |  
यहां पर कॉन्ट्रैक्ट एक फिक्स टाइम के लिए होता है | जैसे – 1 साल या 2 साल के लिए, और कैशफ्लो का पेमेंट रेगुलर इंटरवल पर होता है | जैसे – हर 3 महीने, 6 महीने या फिर 1 साल पर | आमतौर पर एक पार्टी फिक्स रेट पेमेंट करती है | वहीं दूसरी पार्टी एक वेरिएबल रेट पेमेंट करती है | Swaps एक कॉन्प्लेक्स कस्टमाइजेबल डेरिवेटिव होता है | जिसका यूज आमतौर पर बड़े बैंक और कंपनी अपने रिस्क मैनेजमेंट में करती है |

यह एक अनरेगुलेटेड डेरिवेटिव होता है, और इसकी ट्रेडिंग OTC (over the counter) पर होती है | मतलब कोई भी दो पार्टी आपस में swaps कॉन्ट्रैक्ट कर सकती हैं | बस हर swaps कॉन्ट्रैक्ट में यह common होता है, कि दो पार्टी दो अलग-अलग फाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट पर based कैशफ्लो को एक्सचेंज करते हैं | जिनके खुद के टर्म्स एंड कंडीशन होते हैं | 

Example – मान लीजिये आपके पास गेहूं है, और आप को चावल की जरुरत है | वहीं संयोग से आप के पड़ोसी के पास चावल है, और उन्हे गेहूं की जरुरत है |
ऐसे में क्या अच्छा ये नहीं होगा कि आप दोनों अपने-अपने सामान की अदला-बदली कर लें। क्योंकि इससे दोनों को अपनी जरूरत की चीज़ें मिल जाएंगी। इसी प्रकार के अदला-बदली को तो स्वैप (Swap) कहते हैं।
इसपर आपके मन में सवाल आ सकता है, कि आपको पता कैसे चलेगा कि आपके पड़ोसी के पास चावल है और आपके पड़ोसी को कैसे पता चलेगा कि आपके पास गेहूं है। तो यहाँ आती है Mediator की भूमिका। यानी कि इस अदला-बदली के बीच में एक मध्यस्थता करने वाली एक अलग एजेंसी होती है | जो अपना कमीशन लेकर इस अदला-बदली को पूरा कराती है।
याद रखिए कि ये एजेंसी एक्स्चेंज नहीं होता है। यानी कि एक्स्चेंज में स्वैप का कारोबार नहीं होता है और आम तौर पर स्वैप में कंपनियाँ, बिज़नसमैन आदि ही शामिल होते हैं, आम आदमी नहीं।

ध्यान दें – यहाँ पर हमने जो example लिया है | वह commodity swaps का example है |

Swaps Derivative ke Type?

Currency SwapsInterest Rate Swaps
आइए इसे एक example से समझते हैं | मान लीजिए – एक xyz नाम की india  की कंपनी है | जिसे अमेरिका में अपना बिजनेस करना है, और एक अमेरिका की abc नाम की कंपनी है | जिसे इंडिया में बिजनेस करना है | 

लेकिन प्रॉब्लम यह है, कि इंडिया की कंपनी जब अमेरिका में लोन लेना चाहती है | तो उसे इंटरेस्ट रेट बहुत ज्यादा देना होगा | मान लेते हैं वह 10% है | लेकिन वही xyz लिमिटेड अगर इंडिया में लोन लेती है | तो उसे सिर्फ 9%  का ही इंटरेस्ट रेट देना होगा | पर अगर xyz लिमिटेड इंडिया में लोन लेती है | तो उसे उस रुपए को डॉलर में कन्वर्ट करना पड़ेगा और इसके अलावा कई सारी प्रॉब्लम भी आएंगी |

वही अमेरिका की कंपनी जब इंडिया में लोन लेना चाहती है | तो उसे भी इंटरेस्ट रेट बहुत ज्यादा देना होगा | मान लेते हैं वह 10% है | लेकिन वही abc लिमिटेड अगर अमेरिका में लोन लेती है | तो उसे सिर्फ 9% का ही इंटरेस्ट रेट देना होगा | पर अगर abc लिमिटेड अमेरिका में लोन लेती है | तो उसे उस डॉलर को रुपए में कन्वर्ट करना पड़ेगा और इसके अलावा कई सारी प्रॉब्लम भी आएंगी |

अब ऐसी स्थिति में करंसी स्वैप का कांसेप्ट आता है |
इसमें होगा यह कि अमेरिका  की abc कंपनी अपने देश में 9% पर लोन ले लेगी और उसे इंडिया की कंपनी को दे  देगी | इसी प्रकार इंडिया की xyz कंपनी अपने देश में 9% लोन लेकर अमेरिका की कंपनी को दे देगी और इस प्रकार दोनों को लोन सस्ता मिल जाएगा और दोनों का काम बन जाएगा |
Interest rate swap की बात करें तो यहाँ भी कुछ ऐसा ही होता है। मान लीजिये xyz कंपनी ने बैंक से fixed interest रेट पर लोन ले रखा है। इसका मतलब ये है कि जब तक वो पूरा पैसा चुका नहीं देती उसे एक फ़िक्स्ड रेट पर पैसे चुकाने पड़ेंगे।

इसी तरह एक  दूसरी abc नाम की कंपनी है | जिसने Floating rate पर लोन ले रखा है। इसका मतलब ये है कि इसका इंटरेस्ट रेट घट-बढ़ सकता है | बैंक के पॉलिसी के अनुसार। जैसे कि अगर RBI ने Repo rate घटा दी |

तो ऐसे में बैंक का भी इंटरेस्ट रेट घट जाएगा और अगर बढ़ा दी तो बढ़ जाएगा।
अब मान लीजिये कि fixed rate वाली कंपनी को लगता है कि वो जो फ़िक्स्ड इंटरेस्ट रेट चुका रही है | वो बहुत ज्यादा है, जबकि अभी का जो फ्लोटिंग इंटरेस्ट रेट है | वो बहुत कम है, और आगे तो और भी कम होने की उम्मीद है।

इसी तरह से floting rate वाली जो कंपनी है | उसे लगता है, कि आने वाले समय में फ्लोटिंग इंटरेस्ट रेट काफी बढ़ जाएगी | इसीलिए अगर फ़िक्स्ड इंटरेस्ट रेट मिल जाये तो कम-से-कम इस बात कि गारंटी तो रहेगी कि इंटरेस्ट बढ़े या घटे हमें बस एक ही रेट में पे करना है। इसे कहते हैं Speculation यानी कि दोनों अपने-अपने तरीके से अनुमान लगा रहे है, कि ऐसा होगा।

लेकिन अभी के लिए दोनों कंपनी चाहे तो Interest rate swap यानी कि इंटरेस्ट रेट की अदला-बदली कर सकता है।
मतलब जिस कंपनी के पास फ़िक्स्ड इंटरेस्ट रेट है | वो उसे फ्लोटिंग इन्टरेस्ट रेट वाली कंपनी को ट्रान्सफर कर  देगी । इसी प्रकार फ्लोटिंग इन्टरेस्ट रेट वाली कंपनी अपना इंटरेस्ट रेट फ़िक्स्ड  वाली कंपनी को ट्रान्सफर कर  देगी । यही है Interest rate swap.

ध्यान दें – इसके अलावा भी कई तरह के swaps होते है | जैसे – Equity Swaps, Commodity Swaps और Credit Default Swaps आदि |

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FAQ –

Ques – क्या Forwards और Swaps derivative की treading exchange पर होती है?

Ans – नहीं, सिर्फ Futures और Opions (F&O) derivative की ही treading exchange पर होती है |

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